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शेख सादी--मुंशी प्रेमचंद

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एक फ़कीर को कोई काम आ पड़ा। लोगों ने कहा अमुक पुरुष बड़ा दयालु है। यदि उससे जाकर अपनी आवश्यकता कहो तो वह तुम्हें कदापि निराश न करेगा। फ़कीर पूछते-पूछते उस पुरुष के घर पहुंचा। देखा तो वह रोनी सूरत बनाये, क्रोध में भरा बैठा है। उल्टे पांव लौट आया। लोगों ने पूछा क्यों भाई क्या हुआ? बोले सूरत ही देखकर मन भर गया। यदि मांगना ही पड़े तो किसी प्रसन्नचित्‍त आदमी से मांगो, मनहूस आदमी से न मांगना ही अच्छा है।
लोगों ने हातिमताई (उदारता में अरब का हरिश्‍चन्द्र) से पूछा, क्या तुमने संसार में कोई अपने से अधिक योग्य मनुष्य देखा या सुना है? बोला, हाँ एक दिन मैंने लोगों की बड़ी भारी दावत की। संयोग से उस दिन किसी कार्यवश मुझे जंगल की तरफ जाना पड़ा। एक लकड़हारे को देखा बोझ लिये आ रहा है। उससे पूछा भाई हातिम के मेहमान क्यों नहीं बन जाते हैं? आज देश भर के आदमी उसके अतिथि हैं। बोला, जो अपनी मेहनत की रोटी खाता है वह हातिम के सामने हाथ क्‍यों फैलावें?
एक बार युवावस्था में मैंने अपनी माता से कुछ कठोर बातें कह दीं। माता दु:खी होकर एक कोने में जा बैठी और रोकर कहने लगी, बचपन भूल गया, इसीलिये अब मुंह से ऐसी बातें निकलती हैं।
एक बूढ़े से लोगों ने पूछा विवाह क्यों नहीं करते? वह बोला वृध्दा स्त्रियों से मैं विवाह नहीं करना चाहता। लोगों ने कहा, तो किसी युवती से कर लो। बोला, जब मैं बूढ़ा होकर बूढ़ी स्त्रियों से भागता हूं तो युवती होकर बूढ़े मनुष्य को कैसे चाहेंगी?
चौथा प्रकरण : बहुत छोटा है और उसमें मितभाषी होने का जो उपदेश किया गया है उसकी सभी बातों से आजकल के शिक्षित सहमत न होंगे, जिनका सिध्दान्त ही है कि अपनी राई भर बुध्दि को पर्वत बनाकर दिखाया जाय। आजकल विनय अयोग्यता की द्योतक समझी जाती है और वही मनुष्य चलते-पुर्जे और कार्यकुशल समझे जाते हैं जो अपनी बुध्दि और चतुराई की महिमा गान करने में कभी नहीं चूकते। किसी यूरोपीय सज्जन ने यह लिखने में भी संकोच नहीं किया कि चुप रहने से मूर्खता प्रकट होती है। लेकिन इसमें किसी को शंका नहीं हो सकती कि मितभाषी होना भी समाज की उन्नति के लिए उपयोगी है। ऐसे अवसर भी आ जाते हैं जब हमको अपनी वाचालता पर पछताना पड़ता है। इस विषय में सादी ने कई मर्मपूर्ण उपदेश दिये हैं। जिन पर चलने से हमको विशेष लाभ हो सकता है।
एक चतुर युवक का निमय था कि बुध्दिमानों की सभा में बैठता तो मौन धारण कर लेता। लोगों ने उससे कहा, तुम भी कभी-कभी किसी विषय पर कुछ बोला करो। उसने कहा, कहीं ऐसा न हो कि लोग मुझसे ऐसी बात पूछ बैठें जो मुझे आती ही न हो और मुझे लज्जित होना पड़े।
एक विद्वान् ने कहा है कि यदि संसार में कोई ऐसा है जो अपनी मूर्खता को स्वीकार करता हो तो वही मनुष्य है जो किसी आदमी की बात समाप्त होने से पहले ही बोल उठता है।
हसन नाम के एक मंत्री पर बादशाह महमूद गज़नी का बड़ा विश्‍वास था। एक दिन उससे अन्य कर्मचारियों ने पूछा कि आज बादशाह ने अमुक विषय के संबंध में तुमसे क्या कहा? हसन ने कहा, जो तुमसे कहा, वही हमसे भी कहा। बोले, जो बातें तुमसे होती हैं वह हमसे नहीं करते। उत्‍तर दिया, जब बादशाह मुझ पर विश्‍वास करके कोई भेद की बातें कहते हैं तो मुझसे क्यों पूछते हो।
किसी मस्जिद में अवैतनिक मौलवी ऐसी बुरी तरह नमाज, पढ़ता कि सुनने वालों को घृणा होती। मस्जिद का स्वामी दयालु था। वह मौलवी का दिल दु:खाना नहीं चाहता था। मौलवी से कहा कि इस मस्जिद के कई पुराने मुल्ला हैं जिन्हें मैं पांच रुपये मासिक देता हूं। तुम्हें दस रुपये दूंगा, लेकिन किसी दूसरी मस्जिद में जाकर नमाज़ पढ़ आया करो। मौलवी ने इसे स्वीकार कर लिया। लेकिन थोड़े ही दिनों में वह फिर स्वामी के पास आया और बोला, आपने तो मुझे दस रुपये देकर यहाँ से निकाला, अब जहाँ हूं वहाँ के लोग मुझे मस्जिद से जाने के लिए बीस रुपये दे रहे हैं। स्वामी खूब हंसा और बोला, पचास दीनार लिये बिना पिंड मत छोड़ना।
पांचवां और छठवां प्रकरण : जीवन की ही मुख्य अवस्थाओं से संबंध रखते हैं। एक में युवावस्था, दूसरे में वृध्दावस्था का वर्णन है। युवावस्था में हमारी मनोवृत्तियॉं कैसी होती हैं, हमारे कर्तव्‍य क्या होते हैं, हम वासनाओं में किस प्रकार लिप्त हो जाते हैं, बुढ़ापे में हमें क्या-क्या अनुभव होते हैं, मन में क्या अभिलाषायें रहती हैं, हमारा क्या कर्तव्‍य होना चाहिए। इन सब विषयों का सादी ने इस तरह वर्णन किया है मानो वह भी सदाचार के अंग हैं। इसमें कितनी ही कथायें ऐसी हैं जिनसे मनोरंजन के सिवा कोई नतीजा नहीं निकलता, वरन् कुछ कथायें ऐसी भी हैं जिनको गुलिस्तां जैसे ग्रंथ में स्थान न मिलना चाहिए था। विशेषकर युवावस्था का वर्णन करते हुए तो ऐसा मालूम होता है मानो सादी को जवानी का नशा चढ़ गया था।
सातवां प्रकरण : शिक्षा से संबंध रखता है। सादी ने शिक्षकों के दोष और गुण, शिष्य और गुरु के पारस्परिक व्यवहार और शिक्षा के फल और विफल का वर्णन किया है। उनका सिध्दान्त था कि शिक्षा चाहे कितनी भी उत्‍तम हो मानव स्वभाव को नहीं बदल सकती और शिक्षक चाहे कितना ही विद्वान और सच्चरित्र क्यों न हो कठोरता के बिना अपने कार्य में सफल नहीं हो सकता। यद्यपि आजकल यह सिध्दांत निर्भ्रांत नहीं माने जा सकते तथापि यह नहीं कहा जा सकता कि उनमें कुछ भी तत्‍व नहीं है। कोई शिक्षा पध्दति अब तक ऐसी नहीं निकलती है जो दंड का निषेध करती हो, हाँ कोई शारीरिक दंड के पक्ष में है, कोई मानसिक।

एक विद्वान किसी बादशाह के लड़के को पढ़ाता था। वह उसे बहुत मारता और डांटता था। राजपुत्र ने एक दिन अपने पिता से जाकर अध्‍यापक की शिकायत की। बादशाह को भी क्रोध आया। अध्‍यापक को बुलाकर पूछा, आप मेरे लड़के को इतना क्यों मारते हैं? इतनी निर्दयता आप अन्य लड़कों के साथ नहीं करते? अध्‍यापक ने उत्‍तर दिया, महाराज, राजपुत्र में नम्रता और सदाचार की विशेष आवश्यकता है क्योंकि बादशाह लोग जो कुछ कहते या करते हैं वह प्रत्येक मनुष्य की जिह्ना पर रहता है पर जिसे बचपन में सचरित्रता की शिक्षा कठोरतापूर्वक नहीं मिलती उसमें बड़े होने पर कोई अच्छा गुण नहीं आ सकता। हरी लकड़ी को चाहे जितनी झुका लो लेकिन सूख जाने पर वह नहीं मुड़ सकती। मैंने अफ्रीका देश में एक मौलवी को देखा। वह अत्यंत कुरूप, कठोर और कटुभाषी था। लड़कों को पढ़ाता कम और मारता जि़यादा। लोगों ने उसे निकालकर एक धार्मिक, नम्र और सहनशील मौलवी रक्खा। यह हज़रत लड़कों से बहुत प्रेम से बोलते और कभी उनकी तरफ कड़ी आंख से भी न देखते। लड़के उनका यह स्वभाव देखकर ढीठ हो गये। आपस में लड़ाई दंगा मचाते और लिखने की तख्तियॉं लड़ाया करते। जब मैं दूसरी बार फिर वहाँ गया तो मैंने देखा कि वही पहले वाला मौलवी बालकों को पढ़ा रहा है। पूछने पर विदित हुआ कि दूसरे मौलवी की नम्रता से उकता जाने पर लोग पहले मौलवी को मनाकर लाये थे।

एक बार मैं बलख़ से कुछ यात्रियों के साथ आ रहा था। हमारे साथ एक बहुत बलवान नवयुवक था जो डींग मारता चला आता था कि मैंने यह किया और वह किया। निदान हमको कई डाकुओं ने घेर लिया। मैंने पहलवान से कहा, अब क्यों खड़े हो, कुछ अपना पराक्रम दिखाओ। लेकिन लुटेरों को देखते ही उस मनुष्य के होश उड़ गये। मुख फीका पड़ गया। तीर-कमान हाथ से छूटकर गिर पड़ा और वह थरथर कांपने लगा। जब उसकी यह दशा देखी तो अपना असबाब वहीं छोड़कर हम लोग भाग खड़े हुए। यों किसी तरह प्राण बचे। जिसे युध्द का अनुभव हो वही समर में अड़ सकता है। इसके लिए बल से अधिक साहस की ज़रूरत है।
आठवां प्रकरण : सादी ने सदाचार और सद्व्यवहार के नियम लिखे हैं। कथाओं का आश्रय न लेकर खुले-खुले उपदेश किये हैं। इसलिए सामान्य रीति से यह प्रकरण विशेष रोचक न हो सकता था, किन्तु इस कमी को सादी ने रचना सौंदर्य से पूरा किया है। छोटे-वाक्यों में सूत्रों की भांति अर्थ भरा हुआ है। मानो यह प्रकरण सादी के उपदेशों का निचोड़ है। यह वह उपवन है जिसमें राजनीति, सदाचार, मनोविज्ञान, समाजनीति, सभाचातुरी आदि रंग-बिरंगे पुरुष लहलहा रहे हैं। इन फूलों में छिपे हुए कांटे भी हैं, जिनमें वह अद्भुत गुण है कि वह वहीं चुभते हैं जहाँ चुभने चाहिये।
यदि कोई निर्बल शत्रु तुम्हारे साथ मित्रता करे तो तुमको उससे अधिक सचेत रहना चाहिए। जब मित्र की सच्चाई का ही भरोसा नहीं तो शत्रुओं की खुशामद का क्या विश्‍वास!
यदि किन्हीं दो दुश्मनों के बीच में कोई बात कहनी हो तो इस भांति कहो कि अगर वे फिर मित्र हो जायं तो तुम्हें लज्जित न होना पड़े।
जो मनुष्य अपने मित्र के शत्रुओं से मित्रता करता है। वह अपने मित्र का शत्रु है।
जब तक धन से काम निकले तब तक जान को जोखिम में न डालो। जब कोई उपाय न रहे तो म्यान से तलवार खींचो।
शत्रु की सलाह के विरुध्द काम करना ही बुध्दिमानी है अगर वह तुम्हें तीर के समान सीधी राह दिखावे तो भी उसे छोड़ दो और उलटी (उसके विरुध्द) राह जाओ।
न तो इतने कठोर बनो कि लोग तुमसे डरने लगें और न इतने कोमल कि लोग सिर चढ़ें।
दो मनुष्य राज्य और धर्म के शत्रु हैं, निर्दयी राजा और मूर्ख साधु।
राजा को उचित है कि अपने शत्रुओं पर इतना क्रोध न करे कि जिससे मित्रों के मन में भी खटका हो जाय।
जब शत्रु की कोई चाल काम नहीं करती तब वह मित्रता पैदा करता है; मित्रता की आड़ में वह उन सब कामों को कर सकता है जो दुश्मन रहकर न कर सकता।
साँप के सिर को अपने बैरी के हाथ से कुचलवाओ या तो साँप ही मरेगा या दुश्मन ही से गला छूटेगा।
जब तक तुम्हें पूर्ण विश्‍वास न हो कि तुम्हारी बात पसंद आवेगी तब तक बादशाह के सामने किसी की निंदा मत करो; अन्यथा तुम्हें स्वयं हानि उठानी पड़ेगी।
जो व्यक्ति किसी घमंडी आदमी को उपदेश करता है, वह खुद नसीहत का मुहताज है।
जो मनुष्य सामर्थ्यवान होकर भी भलाई नहीं करता उसे सामर्थ्यहीन होने पर दु:ख भोगना पड़ेगा। अत्याचारी का विपद में कोई साथी नहीं होता।
किसी के छिपे हुए ऐब मत खोलो, इससे तुम्हारा भी विश्‍वास उठ जायगा।
विद्या पढ़कर उसका अनुशीलन न करना ज़मीन जोतकर बीज न डालने के समान है।
जिसकी भुजाओं में बल नहीं है, यदि वह लोहे की कलाई वाले से पंजा ले तो यह उसकी मूर्खता है।
दुर्जन लोग सज्जनों को उसी तरह नहीं देख सकते जिस तरह बाज़ारी कुत्ते शिकारी कुत्‍तों को देखकर दूर से गुर्राते हैं; लेकिन पास जाने की हिम्मत नहीं करते।
गुणहीन-गुणवानों से द्वेष करते हैं।
बुध्दिमान लोग पहला भोजन पच जाने पर फिर खाते हैं, योगी लोग उतना खाते हैं जितने से जीवित रहे हैं, जवान लोग पेटभर खाते हैं, बूढ़े जब तक पसीना न आ जाय खाते ही रहते हैं, किन्तु कलन्दर इतना खा जाते हैं कि सांस की भी जगह नहीं रहती।
अगर पत्थर हाथ में हो और साँप नीचे तो उस समय सोच-विचार नहीं करना चाहिए।
अगर कोई बुध्दिमान मूर्खों के साथ वाद-विवाद करे तो उसे प्रतिष्ठा की आशा न रखनी चाहिये।
जिस मित्र को तुमने बहुत दिनों में पाया है उससे मित्रता निभाने का यत्न करो।
विवेक इन्द्रियों के अधीन है जैसे कोई सीधा मनुष्य किसी चंचल स्‍त्री के अधीन हो।
बुध्दि, बिना बल के छल और कपट है, बल बिना बुध्दि के मूर्खता और क्रूरता है।
जो व्यक्ति लोगों का प्रशंसापात्र बनने की इच्छा से वासनाओं का त्याग करता है, वह हलाल को छोड़कर हराम की ओर झुकता है।
दो बात असंभव हैं, एक तो अपने अंश से अधिक खाना, दूसरे मृत्यु से पहले मरना।

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1 Comments

Gunjan Kamal

30-Mar-2022 12:32 PM

Nice

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